
Panchayat Season 4 review: “पंचायत” कभी एक आइना था जिसमें हम अपनी ज़िंदगी देखते थे। लेकिन अब, वो आइना धुंधला हो चला है — उसमें हमारी छवि नहीं, सिर्फ पुरानी यादें रह गई हैं।
कुछ कहानियाँ इसलिए हमारे दिल में घर कर जाती हैं क्योंकि उनमें हम खुद को देख पाते हैं। किरदारों का संघर्ष, उनकी हार-जीत, सब कुछ हमारे अपने जीवन की तरह लगता है। अमेज़न प्राइम की लोकप्रिय वेब सीरीज़ “पंचायत” भी ऐसी ही एक कहानी रही है। जब ये शो पहली बार आया था, तो जीतू भाईया यानी जितेंद्र कुमार का संघर्ष, फुलेरा गांव की सादगी, और ग्रामीण भारत की असली झलक दर्शकों के दिलों को छू गई थी। लेकिन अब, सीज़न 4 आते-आते कुछ चीज़ें थकती हुई, और कुछ बनावटी लगने लगी हैं।
🎭 असल संघर्ष से मनोरंजन तक: जीतू भाईया का सफर
“पंचायत” का सबसे बड़ा आकर्षण शुरू में जितेंद्र कुमार ही थे। एक पढ़ा-लिखा नौजवान जो मजबूरी में सचिव बनकर फुलेरा आता है, तो हम दर्शक भी यही महसूस करते हैं – जैसे हम भी उसी दौर से गुज़र रहे हैं। 2020 की अनिश्चितता, कोविड की बंदिशें, बेरोज़गारी और बेचैनी – उस समय पंचायत एक राहत की तरह थी। जीतू भाईया का किरदार जितना मजबूर था, उतना ही दर्शकों से जुड़ा हुआ भी।
लेकिन अब, चौथे सीज़न में वही जीतू थोड़ा थका-थका, और कहीं-कहीं उबाऊ लगने लगा है। संघर्ष की आग अब मद्धम पड़ती दिखती है।
🧓 जब किरदारों का वज़न कहानी पर भारी पड़ने लगे
ये बात शायद कम ही लोग कहें, लेकिन जो लंबे समय से थिएटर और सिनेमा को बारीकी से देख रहे हैं, उन्हें ये ज़रूर समझ में आएगी — कि जब किसी किरदार या कलाकार के पास काम की कोई कमी नहीं रह जाती, तो वह थोड़ा ढीला पड़ने लगता है।
सांविका (रिंकी) और दुर्गेश दादा जैसे कलाकार अब कैमरे के सामने उतने नैचुरल नहीं लगते जितने पहले थे। चेहरे पर चमक कम, शरीर पर वज़न ज़्यादा – और कहानी पर पकड़ कमज़ोर। अशोक पाठक (विकास भाई) जैसे मंझे हुए थिएटर कलाकार भी अब थके-थके लगने लगे हैं।
✍️ चंदन कुमार की कलम पर पड़ा प्रेशर का असर?
“पंचायत” की आत्मा उसकी लेखन शैली में बसी थी। चंदन कुमार ने पहले तीन सीज़न में जो कमाल का संवाद और भावनाओं की गहराई दी थी, वो अब लगता है जैसे धीरे-धीरे फीकी पड़ रही है।
चौथे सीज़न में कई सीन ऐसे लगते हैं जैसे जबरदस्ती खींचे गए हों। संवादों में वो चुटीली चालाकी नहीं रही, और दृश्य भी पुराने फॉर्मूले दोहराते हुए लगते हैं। शायद इसकी एक वजह यह हो सकती है कि Amazon Prime ने शो को पाँच सीज़न तक के लिए पहले ही हरी झंडी दे दी थी। जब अंत तय हो और सफर लंबा हो, तो कहानी अक्सर थकने लगती है।
📺 टीवीएफ की दूसरी सीरीज़ क्यों अब भी बिंज-वॉर्थ हैं?
इसी टीवीएफ की दूसरी वेब सीरीज़ – “कोटा फैक्ट्री”, “गुल्लक”, या “स्पर्धा” – ऐसी कहानियाँ हैं जो एपिसोडिक होती हैं, यानी एक एपिसोड का अगले से कोई सीधा लेना-देना नहीं होता। इसके बावजूद, उनमें गहराई और ताजगी रहती है।
पंचायत, जिसकी पूरी ताक़त उसके सतत कथानक और किरदारों के विकास में थी, अब वहां थोड़ी निरर्थकता घुसने लगी है। हम दर्शकों को ये महसूस होने लगा है कि कहानी को सिर्फ लंबा खींचा जा रहा है, बिना कोई नयापन जोड़े।
🎬 जब राइटर कामयाब होता है तो…
हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक पुरानी कहावत है — “एक बार राइटर कामयाब हो गया तो वो करप्ट हो जाता है।” इसका मतलब है कि लेखन में जो कच्चापन, ताजगी और ईमानदारी शुरू में होती है, वह सफलता के बाद अक्सर खो जाती है। शायद चंदन कुमार भी इसी चक्रव्यूह में फँस गए हैं।
🔚 क्या पंचायत की कहानी अब थमने वाली है?
ऐसा नहीं है कि पंचायत सीज़न 4 में कोई अच्छा पल नहीं है। ह्यूमर, एक्टिंग, और कैमरा वर्क आज भी उम्दा है। लेकिन जब दर्शक दो एपिसोड देखने के बाद तीसरे के लिए उत्सुक न रहे, तो वह किसी भी सीरीज़ के लिए खतरे की घंटी है।
शायद वक्त आ गया है कि “पंचायत” को एक शानदार अंत की ओर ले जाया जाए, इससे पहले कि वह अपने ही नाम की तरह एक सरकारी दफ्तर की फाइल बन जाए — जो सबको दिखती तो है, पर कोई खोलना नहीं चाहता।