
महाराष्ट्र में हिन्दी को लेकर राजनीति गरम, लेकिन मुंबई की सड़कों पर फैलती अश्लीलता पर सब मौन क्यों? जानिए हिन्दी विरोध बनाम सांस्कृतिक अस्मिता की असल तस्वीर।
जब बात हिन्दी भाषा की आती है, तो महाराष्ट्र की राजनीति में अचानक तेज़ हलचल मच जाती है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने पहली से पाँचवीं कक्षा तक हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन इस प्रस्ताव के विरोध में राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे और सुप्रिया सुले जैसे नेता एक साथ आ गए। विरोध इतना तेज़ था कि सरकार को प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। सवाल उठता है – क्या यह विरोध सिर्फ भाषा का था या इसके पीछे कोई और राजनीति छिपी थी?
हिन्दी पर हमला, लेकिन संस्कृति पर मौन क्यों?
हिन्दी के नाम पर राजनैतिक दलों का विरोध, आंदोलन और बयानबाज़ी तो हम आए दिन देखते हैं। कभी साइनबोर्ड से हिन्दी हटाने की मांग होती है, तो कभी दफ्तरों में हिन्दी बोलने पर ज़बर्दस्ती मराठी थोपने की कोशिशें होती हैं। लेकिन जब बात आती है मुंबई की सड़कों पर खुलेआम अश्लीलता परोसने की, तो वही आवाज़ें खामोश हो जाती हैं।
आज मुंबई की सड़कें उन बी–ग्रेड या फ्लॉप अभिनेत्रियों के लिए रनवे बन चुकी हैं, जो कैमरों के सामने कम से कम कपड़ों में आने को अपना अधिकार और ‘पब्लिसिटी स्टंट’ मान चुकी हैं। सब एक सी स्क्रिप्ट पर चल रही हैं। लो–रेंट फैशन स्टंट, जिसमें कार से निकलते ही पैपराज़ी तैयार होते हैं, वीडियो बनते हैं, इंस्टाग्राम पर वायरल होते हैं और अगले दिन यूट्यूब थंबनेल पर “उफ़्फ, हॉटनेस का तड़का” जैसी हेडलाइन के साथ पेश कर दिए जाते हैं।
सवाल उठता है:
राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे नेता जो ‘मराठी अस्मिता’ और ‘हिन्दी के विरोध’ पर मुखर रहते हैं, क्या उन्हें मुंबई की सांस्कृतिक सड़कों पर हो रहे इस खुले प्रदर्शन पर कुछ नहीं दिखता? क्या ये मराठी संस्कृति पर चोट नहीं है? या फिर ये मामला उनकी राजनीति के दायरे में नहीं आता?
पैपराज़ी की भूमिका पर भी हो सवाल
इन घटनाओं में मीडिया के एक हिस्से की भूमिका भी संदिग्ध है। खासकर वो पैपराज़ी फोटोग्राफर जो इन अभिनेत्रियों के सोशल मीडिया वीडियो के लिए पहले से लोकेशन तय करते हैं। न कोई नैतिकता, न कोई फिल्टर – सिर्फ व्यूज और लाइक्स के पीछे की एक रेस, जिसमें सामाजिक मर्यादा पीछे छूट गई है।
आज किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जाएं – इंस्टाग्राम हो या यूट्यूब, एक तय पैटर्न दिखेगा। एक फ्लॉप स्टारलेट, अजीब सी पोशाक में, अचानक “क्लिक” हो जाती है और अगले दिन वही चेहरे डिजिटल मीडिया पर ‘फेमस’ कहलाते हैं। पैपराज़ी का उद्देश्य बस एक: “वायरल बनाओ, भले ही संस्कृति जल जाए।”
क्या ये ‘मूक स्वीकृति’ ही असली खतरा है?
मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। यहाँ लाखों लोग अलग–अलग राज्यों से आकर काम करते हैं। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री (बॉलीवुड) से महाराष्ट्र को हर साल हज़ारों करोड़ रुपये का राजस्व मिलता है। मगर विडंबना देखिए – हिन्दी का विरोध राजनीति में जोश से होता है, लेकिन बॉलीवुड से मिलने वाला पैसा बिना किसी झिझक के स्वीकार किया जाता है।
और इससे भी बड़ी विडंबना – जिस हिन्दी सिनेमा के माध्यम से लोग मराठी कलाकारों को भी पहचानते हैं, उसी हिन्दी भाषा को आज “बाहरी” कहकर खारिज़ किया जा रहा है।
समय आ गया है सही सवाल पूछने का
• क्या हिन्दी बोलना या सिखाना सांस्कृतिक अपराध है?
• क्या सार्वजनिक स्थानों पर मर्यादा की उम्मीद अब पुरानी सोच बन गई है?
• क्या किसी राज्य में संस्कृति का मतलब सिर्फ भाषा तक सीमित रह गया है?
• अश्लीलता को ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ कहकर बचाने वाले समाज में क्या बच्चों की सुरक्षा, समाज की मर्यादा और स्त्री की गरिमा का कोई मतलब नहीं रह गया?
निष्कर्ष: दोहरापन नहीं, संतुलन चाहिए
भाषा का विरोध करना एक राजनैतिक विषय हो सकता है, लेकिन संस्कृति की रक्षा एक सामाजिक जिम्मेदारी है। जो लोग हिन्दी को ‘संस्कृति पर हमला’ मानते हैं, उन्हें यह भी देखना होगा कि सड़कों पर खुलेआम अश्लीलता फैलाना भी किसी संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकता।
आज ज़रूरत है संतुलन की – जहां भाषाओं को सम्मान मिले और संस्कृति को मर्यादा। वरना हिन्दी पर राजनीति और अश्लीलता पर चुप्पी – ये दोहरा मापदंड समाज में भ्रम, विघटन और गिरते नैतिक मूल्यों को ही जन्म देगा।