
एक और सुनहरा मौका… और वही पुरानी गलती
अंतिम आधे घंटे में सब कुछ बदल गया। जो टीम पूरे दिन मजबूत स्थिति में दिख रही थी, वो अचानक हड़बड़ा गई। विकेट गिरने लगे, फैसले गड़बड़ाने लगे और वह पुरानी तस्वीर सामने आ गई की टीम इंडिया बड़े मौकों पर नर्वस हो जाती है।
क्रिकेट केवल स्कोरबोर्ड का खेल नहीं है, यह मानसिक दृढ़ता की परीक्षा भी है। लेकिन जब भी परीक्षा की घड़ी आती है, भारतीय टीम की घबराहट सामने आ जाती है। और यही कहानी एक बार फिर दोहराई गई—एक नाजुक मोड़ पर लिए गए गलत फैसले और नर्वस खिलाड़ियों ने मैच की दिशा बदल दी।
‘नर्वसनेस’ की पुरानी बीमारी: फिर उभरी नाजुक क्षणों में
जब यशस्वी जायसवाल क्रीज़ पर आए, उनके हावभाव में ही झिझक झलक रही थी। जिस गेंद को वे आमतौर पर स्क्वायर कट करते हैं, उसे उन्होंने पुल करने की कोशिश की और आउट हो गए। यह वो यशस्वी नहीं थे जिन्हें हमने पहले देखा है—आत्मविश्वासी, आक्रामक और बेखौफ।
फिर आए करुण नायर। एक अंदर आती गेंद को छोड़ दिया, और एलबीडब्ल्यू हो गए। तकनीक की गलती नहीं थी—यह माइंडसेट की चूक थी।
शुभमन गिल भी कम नर्वस नहीं दिखे। शुरुआती ओवरों में बार-बार ‘प्ले एंड मिस’। यह संकेत थे कि वे दबाव में थे। लेकिन इस पूरे क्रम में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला फैसला था, आकाशदीप को नाइटवॉचमैन बनाकर भेजना।
नाइटवॉचमैन भेजने का फैसला: तर्कहीन या डर का प्रतीक?
मैच में भारत ने आठ नंबर तक बल्लेबाज़ खिलाए थे। फिर भी टीम मैनेजमेंट को लगा कि नाइटवॉचमैन भेजना चाहिए। सवाल उठता है—अगर एक पूर्ण बल्लेबाज़ अंतिम 15 मिनट क्रीज़ पर टिकने का आत्मविश्वास नहीं रखता, तो एक नंबर 9 खिलाड़ी कैसे करेगा?
आकाशदीप के साथ वही हुआ जिसका डर था। कार्सन के ओवर में तीन बार आउट होते-होते बचे, लेकिन आख़िरी ओवर में बच नहीं सके।
यह एक और उदाहरण है, जब ‘सुरक्षा’ की सोच ने ‘साहस’ को पीछे छोड़ दिया।
केएल राहुल की चूक: स्ट्राइक क्यों नहीं रखी?
आकाशदीप को भेजना ही अगर तय था, तो केएल राहुल को चाहिए था कि वह लास्ट ओवर में स्ट्राइक अपने पास रखते। आकाशदीप अगर 15-20 रन जोड़ देते, तो अगले दिन के लिए भारत की चेज़ की टोन अलग होती।
लेकिन यहां भी वही माइंडसेट हावी रहा—“बचाना है, जीतना नहीं।”
इतिहास से सबक नहीं लिया गया?
यह कोई पहली बार नहीं है। न्यूज़ीलैंड के खिलाफ घरेलू सीरीज़ में भी टीम इंडिया ने मोहम्मद सिराज को नाइटवॉचमैन बनाकर भेजा था। वह पहली ही गेंद पर आउट हुए और रिव्यू भी बर्बाद कर दिया।
तब भी आलोचना हुई थी, तब भी कहा गया था कि यह फैसला टीम की मानसिक कमज़ोरी को दिखाता है। लेकिन लगता है, इस टीम ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा।
आगे की उम्मीदें: अभी भी बाकी है मैच, पर बढ़ गई मुश्किलें
अब जब केएल राहुल के बाद तीन बल्लेबाज़ और बाकी हैं, भारत के पास जीत का मौका अभी भी मौजूद है। लेकिन यह स्पष्ट है कि अगर यह मैच हार भी जाते हैं, तो वह सिर्फ क्रिकेट की हार नहीं होगी। वह एक माइंडसेट की हार होगी। एक ऐसा माइंडसेट जो घबराता है, बचता है, और बड़े मौकों पर पीछे हट जाता है।
मानसिक मजबूती ही असली चुनौती है
बल्लेबाज़ी, गेंदबाज़ी और फील्डिंग तीनों ज़रूरी हैं। लेकिन एक चौथी चीज़ और है, जो टीम इंडिया को बार-बार चूका रही है वो है, मनोबल और आत्मविश्वास।
अगर भारत को वाकई दुनिया की बेस्ट टीम बनना है, तो उसे “घबराने की आदत” को छोड़ना होगा। डरकर नहीं, डटकर खेलने का समय है। नाइटवॉचमैन नहीं, हमें फ्रंटफुट बैट्समैन चाहिए, जो चुनौती से भागे नहीं, उसका सामना करें।