
धर्मशाला की वादियों में इन दिनों कुछ असामान्य चल रहा है। धूप वही है, बर्फ़ की चुप्पी वही, और बौद्ध मंदिरों की घंटियों की गूंज भी वही। लेकिन हवा में एक नई बेचैनी है। क़दमों की हलचल बढ़ गई है, आंखों में चिन्ता तैर रही है—क्योंकि यहाँ तय हो रहा है भविष्य का वह चेहरा, जिसे दुनिया ‘अगला दलाई लामा’ कहेगी।
और जैसे ही भारत की सुरक्षा में लिपटे दलाई लामा की एक तस्वीर सामने आई, बीजिंग की दीवारें थर्रा उठीं। चीनी मीडिया तिलमिला उठा। यही तो बात है दलाई लामा की—जो जहां भी जाते हैं, सिर्फ़ बौद्ध अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि चीन के लिए भी सिहरन लेकर आते हैं।
दलाई लामा कौन हैं?
‘दलाई लामा’ कोई नाम नहीं, यह एक पदवी है। यह पद तिब्बती बौद्ध परंपरा में करुणा के बोधिसत्त्व ‘अवलोकतेश्वर’ के पुनर्जन्म से जुड़ा होता है।
वर्तमान दलाई लामा तेन्ज़िन ग्यात्सो, 14वें अवतार हैं। उनका जन्म 1935 में तिब्बत में हुआ था, जब तिब्बत स्वतंत्र था। 1949 से 1959 के बीच चीन ने तिब्बत को सैन्य और राजनीतिक तरीके से पूरी तरह निगल लिया। और 1959 में जब चीनी सेना का दबाव असहनीय हुआ, तब दलाई लामा भारत आ गए ।
भारत ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि धर्मशाला में एक पूरी निर्वासित तिब्बती सरकार खड़ी कर दी। संसद, राष्ट्रपति, मंत्री सब कुछ है वहाँ।
अब क्यों मचा है हंगामा?
हाल ही में दलाई लामा ने अपने संस्मरण Voice for the Voiceless: 2025 में बड़ा बयान दिया — उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनका अगला पुनर्जन्म चीन में नहीं होगा। वह किसी स्वतंत्र देश में जन्म लेगा। जैसे भारत, नेपाल या भूटान। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अगला दलाई लामा कौन होगा, यह तिब्बती परंपरा और समुदाय तय करेगा। न कि चीनी सरकार।
यह बयान बीजिंग के लिए सीधा तमाचा था।
चीन क्यों बौखलाया है?
चीन की परेशानी केवल धार्मिक नहीं, रणनीतिक है। दलाई लामा तिब्बती अस्मिता के प्रतीक हैं। चीन नहीं चाहता कि तिब्बती लोगों के पास कोई ऐसा आध्यात्मिक स्तम्भ हो, जो उन्हें उनके वास्तविक इतिहास की याद दिलाए। इसलिए चीन वर्षों से यह प्रयास कर रहा है कि अगला दलाई लामा उसका नियुक्त किया हुआ हो।
इसीलिए चीन ने 2007 में State Religious Affairs Order No. 5 पास किया। इसके मुताबिक, दलाई लामा का पुनर्जन्म चीन के भीतर ही होगा और उसे सरकार से मान्यता लेनी होगी।
तिब्बती परंपरा बनाम चीनी “स्वर्ण पात्र प्रणाली”
तिब्बती परंपरा में पुनर्जन्म एक गहरी ध्यान-साधना और आध्यात्मिक संकेतों की प्रक्रिया है। बड़े लामा ध्यान में जाकर यह संकेत प्राप्त करते हैं कि पुनर्जन्म कहाँ हुआ है। फिर खोज दल बालक की तलाश करता है। जो पूर्व दलाई लामा की वस्तुएं पहचान सके, जिनमें करुणा और ज्ञान असामान्य रूप से प्रकट हो।
इसके विपरीत, चीन “Golden Urn System” यानी ‘स्वर्ण पात्र प्रणाली’ अपनाता है। जिसमें संभावित नामों को स्वर्ण पात्र में डालकर लॉटरी जैसी प्रक्रिया से एक को चुना जाता है। यह पद्धति चिंग राजवंश से चली आ रही है, पर यह धर्म से ज़्यादा सत्ता का खेल है।
धर्मशाला में चल रही है बड़ी तैयारी
6 जुलाई को दलाई लामा का 90वाँ जन्मदिन मनाया गया । इससे पहले धर्मशाला में एक महत्त्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें वरिष्ठ लामा, निर्वासित तिब्बती नेता और भिक्षु ने भाग लिया। इस बैठक में आगामी उत्तराधिकार प्रक्रिया की दिशा और रूपरेखा तय की गई ।
क्या फिर दो दलाई लामा होंगे?
स्थिति यहाँ तक पहुँच सकती है कि भविष्य में दो दलाई लामा हों —
• एक, जो चीन घोषित करे
• दूसरा, जिसे तिब्बती परंपरा पहचान दे
इससे वैश्विक बौद्ध समुदाय में गहरी विभाजन की रेखा खिंच सकती है। अमेरिका पहले ही साफ कर चुका है कि वह केवल उस दलाई लामा को मान्यता देगा जो तिब्बती परंपरा से चुना गया हो।
भारत की स्थिति: चुप्पी के पीछे मजबूती
भारत ने धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार को दशकों से सुरक्षा और सम्मान दिया है। लेकिन चीन से रिश्तों की संवेदनशीलता के कारण सीधे बयान देने से बचता रहा है। पर अब हालात बदल रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने हाल ही में कहा कि “अरुणाचल की सीमा तिब्बत से लगती है, चीन से नहीं।” यह एक बड़ा संकेत है कि भारत अब दलाई लामा के मुद्दे पर दबाव में नहीं झुकेगा।
एक चेतावनी: पंचेन लामा की कहानी न दोहराई जाए
1995 में दलाई लामा ने पंचेन लामा की घोषणा की थी। चीन ने उस 6 वर्षीय बालक को अगवा कर लिया। आज तक उसका कोई पता नहीं है। चीन ने अपने किसी और बालक को पंचेन लामा बना दिया, जिसे तिब्बती आज भी नहीं मानते।
क्या वही कहानी दलाई लामा के उत्तराधिकारी के साथ दोहराई जाएगी?
यह सिर्फ उत्तराधिकार नहीं, तिब्बत की आत्मा का संघर्ष है
दलाई लामा के उत्तराधिकारी की लड़ाई अब सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया नहीं रही। यह एक भू-राजनीतिक संघर्ष बन चुकी है। जिसमें भारत, तिब्बत और चीन के बीच संतुलन बनाना एक कूटनीतिक चुनौती है।
यह संघर्ष उस आत्मा की रक्षा का प्रयास है, जो एक बार तिब्बत की हिमालयी घाटियों में शांति का संदेश लेकर आई थी। और आज, जब वह आत्मा पुनर्जन्म के मोड़ पर है। पूरी दुनिया की निगाहें धर्मशाला पर टिकी हैं।
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(यह लेख स्वतंत्र विश्लेषण पर आधारित है और उद्देश्य सूचनात्मक है।)