
कल्पना कीजिए — आप एक खामोश रात में खुले आसमान के नीचे खड़े हैं। दूर कहीं कोई तारा टिमटिमा रहा है, और आप सोचते हैं — काश मैं भी अंतरिक्ष में होता! धरती से ऊपर, वहां… जहां सिर्फ सन्नाटा है और ब्लैक स्काई में पृथ्वी एक नीले संगमरमर की तरह चमकती है।
अब ज़रा सोचिए इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (ISS) पर अब तक 600 से ज्यादा लोग जा चुके हैं। क्या वे सचमुच ‘स्पेस’ में गए? या फिर जो कुछ उन्होंने देखा और महसूस किया, वह बस एक शानदार भ्रम था?
यह कहानी एक अनोखे नज़रिए से अंतरिक्ष की खोज की है, जिसमें हम विज्ञान के चश्मे से वो पर्दा हटाते हैं जो हमें अब तक ‘स्पेस’ कह कर दिखाया गया है।
1. धरती से देखने की सीमा: जब 6 फीट की ऊंचाई पर खड़ा इंसान ब्रह्मांड समझना चाहता है
अगर आप धरती पर खड़े हैं और आपकी लंबाई औसतन 6 फीट है, तो आप किसी भी दिशा में सिर्फ 4.8 किलोमीटर तक देख सकते हैं। इससे आगे, पृथ्वी की गोलाई की वजह से आपकी नजरें थम जाती हैं।
लेकिन खास बात यह है कि इस ऊंचाई से आप 360 डिग्री घुमा कर लगभग 73.2 वर्ग किमी का क्षेत्र देख सकते हैं। यानी आपके लिए ब्रह्मांड बस इतना ही है — एक छोटा, सीमित दृश्य।
2. चलिए आपको ऊंचा उठाते हैं: बुर्ज खलीफा, एवरेस्ट और उससे भी ऊपर…
अब सोचिए कि आपको उठा कर सीधे बुर्ज खलीफा की ऊंचाई यानी 555 मीटर पर ले जाया गया। यहां से आपका क्षितिज (horizon) बढ़कर 84 किमी हो जाएगा और आप एक विशाल 22219 वर्ग किमी क्षेत्र देख पाएंगे।
थोड़ी और ऊंचाई बढ़ाते हैं, अब आप माउंट एवरेस्ट की चोटी पर हैं, लगभग 8849 मीटर ऊंचाई पर। यहां से आप धरती का 336 किमी दूर तक क्षितिज देख सकते हैं और कुल 3.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र।
क्या अब आप स्पेस में हैं?
नहीं… अभी नहीं।
3. ISS की ऊंचाई: क्या 400 किमी ऊपर जाने का मतलब अंतरिक्ष में पहुंच जाना है?
अब आप धरती से सीधे 400 किलोमीटर ऊपर हैं। जी हां, वहीं जहां ISS यानी इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन चक्कर लगाता है। यहां से आपकी नजरें किसी भी दिशा में 2257 किमी तक जा सकती हैं। आप अब लगभग 1.5 करोड़ वर्ग किमी पृथ्वी देख सकते हैं।
यहां एक नाटकीय दृश्य सामने आता है।
आपकी आंखों के सामने पृथ्वी एक विशाल नीली गेंद की तरह नजर आने लगती है। लेकिन आसमान अब नीला नहीं, काला हो गया है।
क्यों?
क्योंकि यहां वायुमंडल इतना पतला हो चुका है कि सूरज की रोशनी भी ‘स्कैटर’ नहीं होती। नीला आसमान तभी दिखता है जब वायुमंडल में प्रकाश तितर-बितर हो, लेकिन यहां… सिर्फ गहरा, स्याह अंधकार है।
4. वजनहीनता: अंतरिक्ष की देन नहीं, गिरने का अनुभव
अक्सर लोग सोचते हैं कि अंतरिक्ष में जाना यानी भारहीन (वज़नहीन) हो जाना। लेकिन यह भी एक भ्रम है।
जब कोई अंतरिक्ष यात्री ISS में होता है, वह असल में फ्री-फॉल में होता है। वह पृथ्वी की ओर लगातार गिर रहा होता है, पर एक खास वेग और दिशा में। जिससे वह पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है और गिरते हुए भी पृथ्वी से टकराता नहीं।
यानी वजनहीनता अंतरिक्ष की वजह से नहीं, बल्कि गिरने की अवस्था की वजह से होती है।
अगर आप एक हवाई जहाज से कूदें, या झूले पर तेजी से नीचे आएं, आप कुछ सेकंड के लिए खुद को अंतरिक्ष यात्री की तरह फील कर सकते हैं। वही भारहीनता, वही सूनापन।
5. पृथ्वी को देखने का भ्रम: गोल दिखती है, पर सच क्या है?
400 किमी ऊपर से पृथ्वी का जो दृश्य दिखाई देता है — एक सुंदर, गोल नीला गोला। वो हमें एक विस्मयकारी एहसास देता है कि हम ‘स्पेस’ में हैं।
पर सच ये है कि आप केवल पृथ्वी का एक छोटा सा क्रॉस-सेक्शनल हिस्सा देख रहे होते हैं।
अगर पृथ्वी एक क्लासरूम ग्लोब जितनी होती, तो ISS उससे सिर्फ एक मानव बाल की मोटाई जितना दूर होता। क्या इतनी दूरी ‘स्पेस’ कहलाने लायक है?
निष्कर्ष: ISS पर जाना एक अनुभव है, लेकिन क्या वो सच में ‘अंतरिक्ष यात्रा’ है?
“स्पेस” एक टेक्निकल शब्द है और उसकी परिभाषा भी उतनी ही पेचीदा।
ISS के स्तर पर पहुंचना यकीनन एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन क्या वह वास्तविक अंतरिक्ष यात्रा है? जहां गुरुत्वाकर्षण नहीं होता, जहां आप पृथ्वी से एकदम दूर होते हैं, जहां रोशनी और अंधकार के बीच कोई वायुमंडलीय हस्तक्षेप नहीं होता?
शायद नहीं।
ISS पर जाना, एक नया दृष्टिकोण (Perspective) देता है। यह हमारे अनुभव को विस्तारित करता है, लेकिन वह दूरी इतनी नहीं कि हम उसे असली ‘स्पेस’ कह सकें।
अंतरिक्ष सिर्फ ऊंचाई नहीं, अनुभव है
“स्पेस” शब्द सिर्फ किसी ऊंचाई या दूरी का नाम नहीं है। यह एक अनुभव है — वह क्षण जब आप खुद को इस ब्रह्मांड में नन्हा महसूस करते हैं, जब आप उस स्याह अंधकार में तैरते हैं, जहां से वापस लौटने की कोई गारंटी नहीं होती।
तो अगली बार जब कोई कहे कि वो स्पेस में गया है, तो मुस्कुराइए… और सोचिए — क्या वो सच में गया था, या बस दिखता वैसा था?