
कल्पना कीजिए, एक ऐसी दुनिया की… जहाँ हर मोबाइल, हर इलेक्ट्रिक कार, हर मिसाइल सिस्टम और हर सुपरकंप्यूटर की नसों में एक अदृश्य लेकिन बेहद ज़रूरी तत्व बह रहा है…. रेयर अर्थ मिनरल्स। ये छोटे-से दिखने वाले तत्व, हमारी आधुनिक सभ्यता की नींव हैं।
लेकिन अब, यह नींव हिल रही है। और इस संकट की जड़ में है एक देश…. चीन।
भारत जैसे देश, जो टेक्नोलॉजी और रक्षा क्षेत्र में छलांग मारना चाहते हैं, उनके लिए यह संकट केवल एक बाज़ार की चुनौती नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल बन चुका है।
चीन की चालाकी: एक एक्सपोर्ट को बनाया परमाणु बम जैसा हथियार
जिस तरह अमेरिका ने रूस के खिलाफ डॉलर को हथियार बनाया, चीन ने रेयर अर्थ मिनरल्स को बना लिया है जियो-इकोनॉमिक मिसाइल।
वो जानता है कि दुनिया की 90% से अधिक रेयर अर्थ रिफाइनिंग क्षमता उसी के पास है। और वह इस ताकत का इस्तेमाल चालाकी से कर रहा है। कभी सप्लाई रोक कर, कभी कीमतें बढ़ाकर, और कभी-कभी दुनिया को ब्लैकमेल करके।
भारत, अमेरिका और यूरोप वर्षों से चीन पर निर्भर थे। लेकिन अब, जब चीन ने इनका निर्यात रोक दिया है, तो दुनिया खामोश नहीं, बेचैन है।
भारत की स्थिति: जब ज़रूरत हो और हथियार न हों
रेयर अर्थ मिनरल्स की बात करें तो भारत का नाम अक्सर आख़िरी में आता है। क्योंकि आज तक माइनिंग या एक्सप्लोरेशन बड़े स्तर पर नहीं हुआ।
परिणाम?
हमारी इलेक्ट्रिक व्हीकल इंडस्ट्री, हमारी डिफेंस टेक्नोलॉजी, और हमारी क्लीन एनर्जी योजनाएँ खतरे में पड़ चुकी हैं।
जिन मेटल्स से नाइट विजन, मिसाइल गाइडेंस सिस्टम, रेडार, AI चिप्स, स्पेसटेक और क्वांटम कंप्यूटिंग चलती है, उन्हीं का हमारे पास भंडार नहीं है। या है, तो हमने अब तक उसे खोजने की ज़हमत नहीं उठाई।
राजस्थान: रेगिस्तान नहीं, रेयर अर्थ का खजाना?
लेकिन कहानी यहाँ मोड़ लेती है।
अक्टूबर 2024 की एक रिपोर्ट ने सबको चौंका दिया। इसमें बताया गया कि राजस्थान, भारत का वीरता और संस्कृति से भरा प्रदेश, रेयर अर्थ मिनरल्स का खजाना छुपाए बैठा है।
जलोर और बालोतरा ज़िलों में 80 से 100 मिलियन टन के भंडार पाए गए हैं।
यह सिर्फ़ मिट्टी नहीं है, यह भारत की तकदीर बदलने वाली धूल है। अगर समय रहते यहाँ माइनिंग शुरू हुई, तो भारत एक सप्लायर नहीं, दुनिया का नया ताक़तवर खिलाड़ी बन सकता है।
रुकावटें: चीन की छाया और पर्यावरण की परछाईं
हर बड़ी कहानी में एक विलेन होता है। यहाँ दो हैं—पर्यावरणीय क्लीयरेंस और अंतरराष्ट्रीय लॉबिंग।
जब अमेरिका ने अपनी रिफाइनिंग इंडस्ट्री बढ़ानी चाही, तब सैकड़ों NGO विरोध में उतर आए। बाद में पता चला, उनमें से कई को चीन से फंडिंग मिल रही थी।
डिसइन्फॉर्मेशन फैलाया गया। “माइनिंग से पर्यावरण बर्बाद होगा” यह कहा गया। और प्रोजेक्ट्स रुकवा दिए गए।
अब चीन यही रणनीति भारत में अपनाना चाहेगा। हमारे लोकतंत्र और फ्रीडम ऑफ स्पीच का इस्तेमाल हमारे ही खिलाफ करेगा।
क्या खोएंगे, क्या पाएंगे: पाँच से दस साल का इंतज़ार
माइनिंग शुरू करने में पर्यावरणीय अनुमतियाँ, नौकरशाही की देरी, और चालाक लॉबीइंग के कारण 5 से 10 साल लग सकते हैं।
तब तक क्या करें?
भारत को चाहिए कि वह चीन पर निर्भर न रहे और ASEAN, अमेरिका, ग्रीनलैंड जैसे विकल्पों की ओर देखे। लेकिन दीर्घकालिक समाधान केवल एक है—आत्मनिर्भरता।
नीति-निर्माताओं के लिए संदेश: यह केवल एक माइनिंग प्रोजेक्ट नहीं, भारत की भविष्य नीति है
अगर भारत इस संकट को समझदारी से हैंडल करता है, तो वह सिर्फ़ एक उपभोक्ता नहीं रहेगा, बल्कि ग्लोबल सप्लाई चेन में निर्णायक भूमिका निभाएगा।
यह केवल एक औद्योगिक क्रांति नहीं, यह भारत की भविष्य की स्वतंत्रता की नींव है।
निष्कर्ष: जब संकट अवसर बन जाए, तब नेतृत्व की असली परीक्षा होती है
भारत के पास आज एक रेयर चांस है, रेयर अर्थ के ज़रिए भविष्य को सुरक्षित करने का।
राजस्थान की धरती से उठती मिट्टी, भारत की तकनीकी क्रांति की बुनियाद बन सकती है।
पर क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
क्या हमारे पास वह इच्छाशक्ति है जो पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बना सके?
क्या हम उन विदेशी चालों को समझ पाएँगे जो हमारी गति को रोकना चाहती हैं?
अगर जवाब “हाँ” है, तो यह सिर्फ़ एक संकट नहीं, भारत की सदी की शुरुआत हो सकती है।