
अमजद खान (गब्बर सिंह) फोटो - सोशल मीडिया
“क्या मैं ये रोल कर पाऊंगा?” अमजद खान का डर और बेचैनी
1973 की एक शाम…
मुंबई के एक कमरे में एक युवा एक्टर अपने दिल की घबराहट से लड़ रहा था।
“तुम्हें लगता है मैं ये रोल सही से निभा पाऊंगा?” – ये सवाल बार-बार अमजद खान अपनी पत्नी शैला से पूछ रहे थे। शैला उन्हें दिलासा देती रहीं, “तुम अच्छे एक्टर हो अमजद, तुम्हारे खून में अभिनय है।”
लेकिन अमजद का जवाब एकदम साफ था — “ये नाटक नहीं, फिल्म है… एकदम अलग।”
उस रात अमजद खान की बेचैनी इस कदर हावी थी कि उन्होंने कुरान को सिर से लगाया और आंख बंद करके दुआ मांगी। यह दृश्य देखकर शैला सिहर उठीं। अमजद यूं प्रार्थना करते पहले कभी नहीं दिखे थे।
जब अमजद की फ्लाइट गिरते-गिरते बची… और वो फिर भी बैंगलोर रवाना हुए
उसी शाम अमजद खान को शोले की शूटिंग के लिए बैंगलोर निकलना था। फ्लाइट टेक ऑफ तो हुई… लेकिन पहुंची नहीं। प्लेन में हाइड्रोलिक फेल हो गया। पायलट ने मुंबई के चारों ओर चक्कर लगाए। कुछ देर बाद प्लेन वापस मुंबई एयरपोर्ट पर लैंड किया। घोषणा हुई “तकनीकी खराबी दूर हो गई है, अब फ्लाइट दोबारा जाएगी।” पर ज़्यादातर यात्री डर के मारे चढ़े ही नहीं।
सिर्फ चार-पांच लोग दोबारा सवार हुए। उनमें एक थे अमजद खान।
क्यों?
उनके दिमाग में सिर्फ एक ही डर था “अगर मैं नहीं पहुंचा, तो डैनी को गब्बर का रोल फिर से मिल जाएगा।”
गब्बर सिंह का रोल कैसे मिला? डैनी के जाने से शुरू हुई खोज
“शोले” के डायरेक्टर रमेश सिप्पी और लेखक सलीम-जावेद परेशान थे। गब्बर सिंह के रोल के लिए डैनी को साइन किया गया था, लेकिन उन्हें अफगान फिल्म “धर्मात्मा” करनी थी।
अब सिप्पी को चाहिए था कोई करिश्माई चेहरा। न रंजीत जंचे, न प्रेम चोपड़ा। एक दिन सलीम खान की अमजद खान से बांद्रा में मुलाकात हुई। उन्होंने अमजद की आंखों में कुछ देखा। कुछ ऐसा जो डर पैदा कर सकता था।
सलीम बोले,
“मैं कोई वादा नहीं कर सकता, लेकिन तुम्हें एक बहुत अच्छा रोल दिला सकता हूं।”
जब अमजद ने “अभिशप्त चंबल” पढ़ी और गब्बर को जिया
रोल मिलने के बाद अमजद खान ने खुद को डूबो दिया… किरदार में, रिसर्च में, अभ्यास में। उन्होंने जया बच्चन के पिता तरुण कुमार भादुड़ी की किताब “अभिशप्त चंबल” पढ़ी। जो लाइनें उन्हें असरदार लगतीं, उन्हें अंडरलाइन करते और पत्नी शैला को पढ़वाते। शीशे के सामने खड़े होकर बार-बार डायलॉग बोलते, आवाज़ में गूंज लाते।
“अरे ओ सांभा” का अंदाज़ उन्होंने अपने बचपन के धोबी से लिया था, जो अपनी पत्नी को यूं ही पुकारता था।
स्क्रीन टेस्ट से लेकर अंतिम मंज़ूरी तक, एक थियेटर कलाकार का ट्रांसफॉर्मेशन
चार दिन बाद हुआ स्क्रीन टेस्ट।
दाढ़ी, काले किए हुए दांत, दमदार आवाज़ और नपी-तुली हिंदी।
एक्टर सत्येन कप्पू से पूछा गया — “क्या अमजद तुमसे बेहतर कलाकार हैं?”
उन्होंने जवाब दिया — “हां, यंग है, सोच फ्रेश है।”
20 सितंबर 1973 को अमजद खान फाइनल हो गए।
उसी दिन उनका बेटा शादाब जन्मा। गब्बर को जन्म मिला, और साथ ही अमजद को नई पहचान।
थिएटर का सितारा, फिल्मों का खलनायक… पर एक बात की कसक हमेशा रही
शोले सुपरहिट हुई और अमजद खान का नाम हर जुबान पर था। लेकिन इस शोहरत की एक कीमत भी थी। गब्बर सिंह की छवि इतनी मजबूत हो गई कि अमजद उससे कभी बाहर नहीं आ सके।
अमजद ने एक बार कहा था,
“कभी-कभी लगता है मैंने बहुत अच्छा काम किया, पर फिर सोचता हूं… क्या सिर्फ एक किरदार ही मेरी पहचान बन गया?”
संयोग या भाग्य? जन्मदिन का दिलचस्प इत्तेफाक
12 नवंबर 1940 — अमजद खान का जन्मदिन।
12 नवंबर 1915 — उनके ससुर अख्तर-उल-ईमान का जन्मदिन।
सिर्फ रिश्ते में नहीं, तारीख़ों में भी जुड़ाव। बेटी शैला, शायर पिता अख्तर-उल-ईमान और गब्बर बन चुके अमजद… एक ही दिन जन्मे।
निष्कर्ष – डर, विश्वास और जुनून से बना गब्बर
अमजद खान की कहानी सिर्फ एक कलाकार की नहीं है यह एक इंसान की कहानी है जो अपने डर से लड़कर, अपनी दुआओं से ताकत लेकर, अपने जूनून से इतिहास रचता है। गब्बर सिंह शायद शोले का विलेन था। लेकिन अमजद खान उस विलेन के पीछे छिपा एक सच्चा नायक था जो अपनी भूमिका से ज़्यादा, अपने समर्पण से बड़ा बन गया।
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