
अमेरिका, रूस और तुर्की के नेताओं के बीच वैश्विक राजनीति की नई शतरंज। PC: AI
जब दो छोटे देश बने महाशक्तियों की शतरंज के मोहरे
दुनिया की राजनीति अक्सर युद्धक्षेत्र में तय नहीं होती, बल्कि उन गुप्त बैठकों, सौदों और कूटनीतिक चालों में तय होती है जो आम लोगों की नज़रों से दूर होती हैं। हाल ही में अजरबैजान और आर्मेनिया का संघर्ष इसका ताज़ा उदाहरण है। जहाँ दो छोटे देश, तीन महाशक्तियाँ और अरबों डॉलर के सौदे एक साथ जुड़े।
इस कहानी में रूस अपनी पारंपरिक शक्ति खोता दिखाई देता है, अमेरिका नए सैन्य और आर्थिक ठिकाने बना रहा है, और तुर्की दोनों से खेलकर अपने लिए फायदे निकाल रहा है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि कौन जीता, बल्कि यह है कि हार किसकी सबसे बड़ी हुई।
तुर्की की चालाकी और रूस की बेबसी
अजरबैजान-आर्मेनिया संघर्ष में तुर्की ने खुलकर अजरबैजान का समर्थन किया, जबकि रूस ने दोनों पक्षों को संतुलित करने की कोशिश की। लेकिन असलियत यह है कि तुर्की रूस को लगातार अपने हितों के लिए इस्तेमाल करता रहा—
• सीरिया में रूस के सहयोगी असद सरकार के खिलाफ
• लीबिया में रूस समर्थित सरकार के खिलाफ
• ब्लैक सी में “बफर” बनने के वादे के साथ
परंतु अंत में, तुर्की ने अमेरिका को क्षेत्र में आने का रास्ता दे दिया। अब स्थिति यह है कि अमेरिका न केवल रूस, बल्कि ईरान को भी उत्तर से घेरने की तैयारी में है।
रूस की ऊर्जा निर्भरता और नाटो का दबाव
रूस की एक बड़ी कमजोरी यह है कि उसकी गैस और तेल पाइपलाइन अजरबैजान और तुर्की से होकर गुजरती हैं। तुर्की, नाटो का सदस्य होने के नाते, पश्चिमी देशों का “पसंदीदा दबाव बिंदु” बन चुका है।
यदि रूस तुर्की पर कोई सैन्य कार्रवाई करता है, तो नाटो की सामूहिक रक्षा नीति सक्रिय हो सकती है। और यह वही सपना है जिसे नेपोलियन से लेकर हिटलर तक पूरा नहीं कर सके, लेकिन अमेरिका इसे पूरा करने के करीब है।
एशिया-प्रशांत में रूस की सीमित ताकत
पूर्वी एशिया में रूस की स्थिति और भी कमजोर है—
• चीन के साथ रिश्ते जटिल
• जापान से ऐतिहासिक विवाद
• अमेरिका के साथ सीधी टक्कर में असमर्थ
• केवल उत्तर कोरिया के साथ सीमित सहयोग
यानी, वैश्विक स्तर पर रूस की सैन्य और आर्थिक शक्ति का दायरा अब सीमित होता जा रहा है।
पूंजीवाद बनाम वामपंथ: असली ताकत किसके पास?
जहाँ रूस अपने पुराने वामपंथी-सरकारीकरण मॉडल से बाहर नहीं निकल पाया, वहीं अमेरिका जैसे “पूंजीवादी” देशों ने इतनी संपत्ति जमा कर ली है कि वे किसी भी देश को आर्थिक रूप से झुका सकते हैं।
रूस के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं, लेकिन सुधारों के अभाव में वह अपनी आर्थिक क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर सका। चीन ने वामपंथी ढांचे में पूंजीवादी तरीकों को अपनाकर अपनी अर्थव्यवस्था को ताकतवर बनाया, पर रूस ऐसा करने में पीछे रह गया।
डॉलर और SWIFT सिस्टम की पकड़
अमेरिका की सबसे बड़ी ताकत उसकी मुद्रा डॉलर और SWIFT नामक वैश्विक बैंकिंग नेटवर्क है।
• भारत जैसे देश, जहाँ 40% से अधिक अर्थव्यवस्था सर्विस सेक्टर पर आधारित है, और अधिकांश विदेशी राजस्व डॉलर में आता है, इस सिस्टम से पूरी तरह बंधे हैं।
• यह राजस्व सीधे अमेरिकी बैंकों में रखा जाता है, और SWIFT के जरिए मॉनिटर किया जाता है।
• अमेरिका किसी भी समय किसी भी देश के आर्थिक लेन-देन की जानकारी निकाल सकता है और दबाव बना सकता है।
जब तक डॉलर और SWIFT की पकड़ कायम है, तब तक असली आर्थिक स्वतंत्रता मुश्किल है।
क्या ग्लोबल साउथ का कोई “NATO” बन सकता है?
सैद्धांतिक रूप से, अगर ग्लोबल साउथ या RIC (रूस, भारत, चीन) जैसे समूह, एक संयुक्त आर्थिक और सैन्य गठबंधन बना लें, तो पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन व्यावहारिक रूप से यह कठिन है क्योंकि:
• विचारधाराओं और हितों में भारी अंतर
• आपसी अविश्वास और राजनीतिक टकराव
• एकजुट नेतृत्व की कमी
जहाँ पश्चिमी “लेफ्ट” एकजुट होकर काम करता है, वहीं DSA-विरोधी और “राइट विंग” गुट आपस में ही उलझे रहते हैं।
निष्कर्ष: महाशक्तियों के खेल में छोटे देशों का भविष्य
अजरबैजान-आर्मेनिया विवाद ने एक बार फिर साबित किया है कि आधुनिक भू-राजनीति में सैन्य ताकत से ज्यादा मायने रखती है..एम आर्थिक पकड़, कूटनीतिक चालाकी और संसाधनों का स्मार्ट उपयोग।
रूस, अपनी वामपंथी जड़ता और ऊर्जा-निर्भरता के कारण, इस खेल में पीछे रह गया है। अमेरिका और तुर्की ने मौके का फायदा उठाकर न सिर्फ भू-राजनीतिक बढ़त ली है, बल्कि भविष्य के आर्थिक और सैन्य ठिकानों की नींव भी रख दी है।
सवाल यह है कि क्या रूस आने वाले वर्षों में अपने ढांचे में सुधार कर फिर से ताकतवर बन पाएगा, या वह धीरे-धीरे एक सीमित क्षेत्रीय शक्ति बनकर रह जाएगा? और क्या ग्लोबल साउथ कभी एकजुट होकर पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती दे पाएगा, या यह विचार भी एक भूली-बिसरी कल्पना बनकर रह जाएगा?