
भारत-अमेरिका डील की असफलता के पीछे की कूटनीति—मोदी और ट्रम्प के बीच अदृश्य खिंचाव का प्रतीक। PC: AI
प्रस्तावना: जब डील होते-होते रह गई…
एक वैश्विक मंच पर जब दो बड़ी शक्तियाँ भारत और अमेरिका आमने-सामने आती हैं, तो केवल डिप्लोमैटिक दस्तावेज नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, अहं की टकराहट और छुपी रणनीतियाँ भी अहम भूमिका निभाती हैं।
रॉयटर्स की हालिया रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत-अमेरिका डील लगभग तय थी, लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि सब कुछ टूट गया। यह महज़ डिप्लोमैटिक फेल्योर नहीं, बल्कि एक बड़ी भू-राजनीतिक पटकथा का पर्दाफाश था।
ट्रम्प की मध्यस्थता: भारत क्यों चिढ़ा?
अमेरिका चाहता था क्रेडिट, भारत चाहता था सम्मान
रॉयटर्स के अनुसार, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि उन्होंने भारत-पाक युद्ध को रोका। अमेरिका चाहता था कि भारत इस बात को सार्वजनिक तौर पर माने।
लेकिन भारत ने इसे अपमान माना… एक संप्रभु राष्ट्र की गरिमा के खिलाफ़।
जब कूटनीति अहंकार से टकराती है
क्यों नहीं हुआ आखिरी फ़ोन कॉल?
शुरुआत में तो ऐसा लगा कि सब कुछ सरल होगा। पीयूष गोयल के अमेरिकी दौरे के बाद और अमेरिकी उपराष्ट्रपति के भारत प्रवास पर सबने उम्मीद जताई कि डील जल्दी संभव होगी। लेकिन जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ी, अमेरिका की इच्छाएं और भारत की प्राथमिकताएं टकराने लगीं।
दोनों देशों के प्रतिनिधि मंडल को उम्मीद थी कि या तो पीएम मोदी या डोनाल्ड ट्रम्प कोई फ़ोन करेंगे, जिससे डील को अंतिम रूप दिया जा सके।
लेकिन न फ़ोन हुआ, न कोई अंतिम निर्देश आया। नतीजा – डील फ्रैक्चर हो गई।
भारत ने कृषि और डेरी पर अमेरिका की बात क्यों ठुकराई?
“फर्स्ट” नीति बनाम “लक्ष्मण रेखा”
अमेरिका चाहता था कि भारत अपने कृषि और डेयरी बाजार को अमेरिकी उत्पादों के लिए खोल दे। यह एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि भारत की कृषि परंपरागत, करोड़ों छोटे किसानों पर निर्भर है। वहीं, अमेरिकी डेयरी सेक्टर बड़ा और अत्याधुनिक है, जिसकी आड़ में अमेरिका जीएम फसलों और सस्ते डेयरी उत्पादों को भारत में बेचने के लिए दबाव बनाता रहा। भारत ने यह स्वीकार नहीं किया कि वह अपनी ग्रामीण कृषि और किसानों की आस्थाओं को खतरे में डाल दे। इस संवेदनशीलता के कारण डील में ठहराव आया।
अमेरिका की रणनीति: भारत को ‘कमतर’ दिखाने की कोशिश?
कश्मीर मुद्दा और ट्रम्प की ‘गलत’ भाषा
भारत स्पष्ट रूप से कश्मीर को द्विपक्षीय मामला मानता है। लेकिन ट्रम्प ने इसे “हल कराने” की बात कह दी जो पाकिस्तान की भाषा है। इससे भारत को रणनीतिक और वैचारिक दोनों स्तरों पर आपत्ति थी।
डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार दावा किया कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध को रोका। लेकिन भारत ने यह स्पष्ट किया कि कोई मध्यस्थता नहीं हुई और युद्ध नियंत्रण भारत की सैन्य कार्रवाई और रणनीति का नतीजा था। अमेरिकी प्रशासन ने पाकिस्तान से मध्यस्थता की शर्तें तत्काल स्वीकार करवा लीं, जबकि भारत ने स्वतंत्र नीति बनाए रखी। भारत ने कश्मीर को द्विपक्षीय मामला माना और इसपर तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप को खारिज किया।
भारत को डराने की अमेरिकी कोशिश
एक अमेरिकी रिपोर्ट के मुताबिक, उपराष्ट्रपति ने भारत को पाकिस्तान के बड़े हमले की जानकारी दी… शायद भारत को पीछे हटने के लिए।
लेकिन हुआ इसके उलट। भारत ने उस जानकारी को साहस में बदला, और दो घंटे के भीतर पाकिस्तान के सैन्य ठिकानों को ध्वस्त कर दिया।
किरना हिल पर हमला: एक गहरी कहानी
क्या अमेरिका के परमाणु हथियार थे वहाँ?
जिस ठिकाने पर भारत ने हमला किया, वह किरना हिल था। जिसके बारे में माना जाता है कि 90 के दशक में अमेरिका ने वहाँ परमाणु हथियारों का कार्यक्रम चलाया था। यह हमला सिर्फ़ पाकिस्तान पर नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक संकेत भी था।
BRICS का पुनर्जागरण: ट्रम्प की अनजानी देन?
ग्लोबल साउथ की एकता
जहाँ ट्रम्प ने भारत, दक्षिण अफ्रीका और ईरान से टकराव की नीति अपनाई, वहीं इसके उलट असर हुआ।
BRICS, जो लगभग निष्क्रिय हो चुका था, अब फिर से ज़िंदा हो रहा है। आज रूस, भारत, चीन, साउथ अफ्रीका और ब्राज़ील… अमेरिकी दबावों से ऊपर उठकर एक नई धुरी बना रहे हैं।
कुछ आलोचक तो यह तक कहने लगे हैं:
“अगर ट्रम्प को नोबेल प्राइज़ मिलना चाहिए, तो इसी बात के लिए कि उन्होंने ग्लोबल साउथ को एकजुट कर दिया।”
निष्कर्ष: भारत झुका नहीं, उभरा है
भारत-अमेरिका डील का टूटना महज़ एक व्यापारिक मसला नहीं था। यह संप्रभुता, गरिमा, रणनीति और वैश्विक संतुलन का प्रश्न था।
भारत ने दिखा दिया कि वह अमेरिका की तरह “डील मेकर” नहीं, बल्कि वैश्विक जिम्मेदार राष्ट्र है, जो अपने लोगों, अपने किसानों और अपने मूल्यों के साथ समझौता नहीं करेगा।
भारत ने न केवल अपनी किसानों की हितों की रक्षा की, बल्कि कश्मीर जैसे संवेदनशील मसलों पर अपने रुख में मजबूती दिखाई। इस पूरे विवाद ने यह साबित किया कि भारत अपनी संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेगा, चाहे राजनीतिक या आर्थिक हित जितने भी बड़े हों।