
कल्पना कीजिए, एक बर्फीली सुबह, रूस के मध्य भाग में बसे सवेर्दलोव्स्क क्षेत्र (Sverdlovsk Oblast) में अचानक सड़कों पर हिंदी, भोजपुरी और तमिल बोलते भारतीय मजदूरों की आवाजें गूंजने लगें। साइबेरियाई ठंड में लिपटे ये लोग रूस की फैक्ट्रियों, कंस्ट्रक्शन साइट्स और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में जीवन की नयी इबारत लिखते दिखें। यह कोई फिल्मी दृश्य नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक भू-राजनीतिक बदलाव की शुरुआत हो सकती है।
रूस ने भारत से 10 लाख वर्कर्स की आधिकारिक मांग की है। यह मांग सिर्फ एक लेबर डील नहीं, बल्कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए एक सीधा चैलेंज है। यह एक नई धुरी का निर्माण है, जिसमें भारत सिर्फ एक दर्शक नहीं, बल्कि निर्माता की भूमिका निभा सकता है।
रूस की डिमांड: ज़रूरत या रणनीति?
यूक्रेन युद्ध के बाद रूस की अर्थव्यवस्था पर पश्चिमी प्रतिबंधों की भारी मार पड़ी है। लेबर फोर्स की भारी कमी है, विशेषकर पूर्वी रूस और सुदूर क्षेत्रों में। रूस की जनसंख्या लगातार घट रही है और युवा कार्यबल विदेश पलायन कर रहा है।
ऐसे में रूस को एक ऐसे देश की जरूरत है जिससे वह भरोसेमंद, सस्ते और कुशल वर्कर्स ला सके। और भारत, जिसकी बड़ी आबादी अभी भी रोज़गार की तलाश में है, इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प बनकर उभरा है।
लेकिन अमेरिका क्यों घबरा रहा है?
“India buys oil from Russia and resells it. That’s despicable.”
यह शब्द हाल ही में अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्राहम ने भारत को लेकर कहे। और ये महज़ एक वाक्य नहीं—बल्कि उस चिंता का प्रतिबिंब हैं जो अमेरिका को भीतर तक हिला रही है।
क्यों?
क्योंकि अगर 10 लाख भारतीय रूस में काम करने लगे, तो यह सिर्फ आर्थिक साझेदारी नहीं, बल्कि एक रणनीतिक साझेदारी बन जाएगी। रेमिटेंस के ज़रिए रूस भारत की अर्थव्यवस्था में गहराई से जुड़ जाएगा। और अगर भारत रूस के साथ अपना स्वतंत्र भुगतान सिस्टम बना लेता है—तो वह अमेरिका के SWIFT आधारित वर्चस्व को ठेंगा दिखा देगा।
भुगतान कैसे होगा? SWIFT नहीं, फिर क्या?
वर्तमान में रूस वैश्विक SWIFT सिस्टम से बाहर है। भारत को वहां से तेल की पेमेंट्स के लिए पहले ही एक अलग व्यवस्था बनानी पड़ी। लेकिन वर्कर्स को सैलरी कैसे दी जाएगी? इसका हल है—Bilateral Payment Mechanism, यानी भारत-रूस के बीच एक ऐसा भुगतान प्लेटफॉर्म जो केवल दोनों देशों के लिए हो।
सूत्रों की मानें तो इसी को लेकर पुतिन भारत दौरे पर आ सकते हैं। यह दौरा सिर्फ एक कूटनीतिक यात्रा नहीं, बल्कि एक आर्थिक क्रांति की नींव बन सकता है।
रूस की ज़रूरत, भारत का अवसर
रूस को लाखों वर्कर्स की ज़रूरत है। सिर्फ इसलिए नहीं कि उसके पास मैनपावर की कमी है, बल्कि इसलिए कि वह अपने सुदूर पूर्वी हिस्सों को डेवलप करना चाहता है। व्लादिवोस्तोक जैसे इलाकों को विकसित करने के लिए उसे भरोसेमंद विदेशी श्रमिकों की जरूरत है। चीन उसे भरोसा नहीं देता, मध्य एशिया अस्थिर है, तो विकल्प? भारत।
भारत के लिए यह सुनहरा अवसर है, खुद को एक Global Workforce Powerhouse के रूप में स्थापित करने का। जैसे फिलीपींस, बांग्लादेश या नेपाल अपने रेमिटेंस से देश चलाते हैं, भारत को अब केवल सर्विस एक्सपोर्टर नहीं, बल्कि निर्णयकर्ता बनना है।
क्या यह तेल जैसी डील है?
बहुत से लोग मानते हैं कि जैसे भारत ने रूस से सस्ता तेल रुपये में खरीदा, वैसे ही इन वर्कर्स को भी वही पैसे मिलेंगे। लेकिन यह गलतफहमी है। तेल के रुपये और इन वर्कर्स की सैलरी, दोनों अलग-अलग मैकेनिज्म के तहत आएंगे। तेल की पेमेंट सरकार-से-सरकार डील थी, जबकि यह प्राइवेट कंपनियों के साथ है। इसलिए इसके लिए नया सिस्टम बनाना ही होगा।
अमेरिका की असली चिंता: Indo-Pacific में दरार
अमेरिका भारत को QUAD, Indo-Pacific रणनीति और China Containment में एक मजबूत साथी मानता है। लेकिन अगर भारत रूस की ओर झुकता है, तो यह अमेरिका की रणनीति को भीतर से हिला देगा।
• क्या भारत रूस से Su-57 जैसे फिफ्थ जनरेशन फाइटर जेट्स खरीदेगा?
• क्या भारत और रूस मिलकर भविष्य में AI, तकनीक और मिलिट्री पर साझेदारी करेंगे?
• क्या यह भारत की अमेरिका से ‘रणनीतिक दूरी’ की शुरुआत है?
यही वे सवाल हैं जो वाशिंगटन को बेचैन कर रहे हैं।
भारत की छवि का सवाल
इस विषय पर चर्चा करते समय एक और बात बेहद ज़रूरी है। कुछ सोशल मीडिया यूज़र्स अक्सर विदेशी महिलाओं पर अभद्र टिप्पणियाँ करते हैं, खासकर रूसी महिलाओं पर। यह मानसिकता शर्मनाक है और भारत की वैश्विक छवि को नुकसान पहुँचाती है।
अगर हम चाहते हैं कि भारतीय वर्कर्स को दुनिया सम्मान से देखे, तो हमें अपने ऑनलाइन बर्ताव में ज़िम्मेदारी दिखानी होगी। हमारी संस्कृति, मेहनत और समर्पण, यही हमारी पहचान होनी चाहिए, न कि घटिया चुटकुले।
निष्कर्ष: यह सिर्फ जॉब माइग्रेशन नहीं, एक भू-राजनीतिक घोषणा है
भारत और रूस के बीच 10 लाख श्रमिकों की यह डील महज़ एक आर्थिक सौदा नहीं, यह भारत की नई वैश्विक भूमिका का संकेत है।
यह अमेरिका, यूरोप और चीन को संदेश देता है कि भारत अब सिर्फ विकल्पों का उपभोक्ता नहीं, बल्कि उन्हें गढ़ने वाला खिलाड़ी बन चुका है।
अब सवाल यह नहीं कि क्या भारत यह कदम उठाएगा, बल्कि यह है कि क्या भारत वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने का यह ऐतिहासिक मौका गंवा देगा, या पूरी ताकत से इसका नेतृत्व करेगा?
⸻
अगर आप इस ऐतिहासिक घटनाक्रम पर अपनी राय देना चाहते हैं, तो नीचे कमेंट कीजिए—क्या भारत को अमेरिका के दबाव से डरना चाहिए या अपने रास्ते खुद चुनने चाहिए?