
मेजर शैतान सिंह भाटी और रेजांग ला स्मारक, लद्दाख की पहाड़ियों में 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता का प्रतीक।
प्रस्तावना : बर्फ में दफ्न रहस्य
फ़रवरी 1963 की एक सर्द दिन, चुशूल से रेज़ांग ला की ओर भटकते हुए एक लद्दाख़ी गड़ेरिए ने वहाँ के सन्नाटे और वीराने को महसूस किया। तभी उसकी नज़र अचानक तबाह हुए बंकरों, बिखरे कारतूसों और वीर सैनिकों की जमी हुई लाशों पर पड़ी। यह दृश्य किसी साधारण मृत्यु का नहीं था, यह महान बलिदान की गवाही दे रहा था।
उस समय तक दुनिया को यह पता भी नहीं था कि यहाँ क्या हुआ था। इन सैनिकों को तो कायर कहा गया था… भागे हुए, डरपोक! लेकिन सच्चाई इससे बिलकुल उलट थी। क्योंकि 18 नवंबर 1962 की सुबह, 13 कुमाऊँ रेजिमेंट ने रेज़ांग ला की बर्फ़ीली चोटियों पर ऐसा शौर्य दिखाया जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सकेगा।
1962 का पृष्ठभूमि : बर्फ़ में झोंके गए वीर
भारत-चीन युद्ध ने जब लद्दाख़ की बर्फ़ीली घाटियों को रणभूमि बनाया, तब 13 कुमाऊँ रेजिमेंट को चुशूल हवाईपट्टी की सुरक्षा के लिए भेजा गया।
• ये जवान ज्यादातर हरियाणा से थे।
• जीवन में उन्होंने पहली बार बर्फ़ देखी थी।
• उनके पास ऊँचाई और भीषण सर्दियों से लड़ने के लिए कपड़े-जूते तक नहीं थे। सिर्फ़ सूती पतलून और हल्के कोट।
इन कठिन परिस्थितियों में भी उनका नेतृत्व कर रहे थे मेजर शैतान सिंह भाटी, जिनका नाम आगे चलकर भारतीय साहस की परिभाषा बन गया।
युद्ध का दिन : 18 नवंबर 1962
सुबह साढ़े तीन बजे का समय था। चारों तरफ़ बर्फ़, सन्नाटा और आतंक का माहौल। तभी अचानक गोलियों की बौछार से घाटी गूंज उठी।
सूबेदार राम चंद्र यादव, जो इस युद्ध से जीवित लौटने वाले चुनिंदा सैनिकों में से एक थे, याद करते हैं:
“जैसे ही दुश्मन हमारी रेंज में आया, हमने लंबा बर्स्ट किया। कुछ चीनी वहीं ढेर हो गए और बाकी पीछे भागे। उस समय मेजर साहब मुस्कुराते हुए बोले – यही वक्त है, अब हम दिखाएँगे कि कुमाऊँ कैसे लड़ता है।”
लेकिन यह तो बस शुरुआत थी…
चीनी हमला और भारतीय जवानों की दीवार
• शुरू में भारतीयों ने ऊँचाई का फायदा उठाकर चीनी सैनिकों को रोक लिया।
• मगर फिर चीन ने लगातार मोर्टार और गोले बरसाने शुरू कर दिए।
• 15 मिनट की तबाही में भारतीय बंकर चकनाचूर हो गए।
इसके बावजूद, भारतीय सैनिक भिड़ गए हाथ से हाथ की लड़ाई में। जब गोलियाँ ख़त्म हो गईं तो वे राइफ़ल के बट, पत्थर और नंगे हाथों से लड़े।
एक सैनिक सिग्राम ने तो गोलियाँ खत्म होने के बाद एक चीनी को पकड़कर चट्टान पर दे मारा। इस वीरता का कोई मुकाबला नहीं था।
मेजर शैतान सिंह : अंतिम सांस तक कमांडर
युद्ध की भीषणता में एक गोले का टुकड़ा मेजर शैतान सिंह की बांह में घुस गया। पट्टी करवाने के बाद भी वे अपने जवानों को हिम्मत देते रहे। फिर मशीनगन की बौछार ने उनके पेट को छलनी कर दिया।
रामचंद्र यादव बताते हैं:
“मेजर साब ने हाँफते हुए कहा – रामचंद्र, मैं यहीं मरना चाहता हूँ, पर तू बटालियन जाकर सब को बता देना कि चार्ली कंपनी ने कैसे लड़ाई लड़ी।”
सवा आठ बजे उनकी सांसें थम चुकी थीं, लेकिन उनका साहस हमेशा जीवित रहा।
बलिदान या कायरता?
इस लड़ाई के बाद जब लंबे समय तक जवानों की खबर नहीं मिली, तो अफवाह फैली कि वे डरकर भाग गए थे। यहाँ तक कि जो कुछ लोग जीवित लौट आए, लोगों ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया और उनके बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया।
असलियत 1963 में सामने आई, जब गड़ेरिए ने जमी हुई लाशें देखीं। हर लाश पर गोलियों के कई निशान, किसी के हाथ में राइफ़ल, किसी के हाथ में सिरिंज, और किसी के सीने पर तिरंगे के प्रति आख़िरी वफ़ादारी। तभी दुनिया को पता चला कि ये 114 जवान कायर नहीं, अमर शहीद थे।
क्यों अमर है रेज़ांग ला की गाथा?
• केवल 124 जवानों बनाम 1000 से अधिक चीनी सैनिकों का सामना।
• 114 भारतीय शहीद, केवल 5 युद्धबंदी।
• चार्ली कंपनी के बलिदान से लेह, करगिल और जम्मू-कश्मीर बच गए।
• यदि उन्होंने दुश्मन को न रोका होता, परिणाम अलग होता।
रेज़ांग ला से सबक : साहस की परिभाषा
रेज़ांग ला सिर्फ़ एक युद्ध नहीं था। यह एक सीख है कि कठिन से कठिन हालात में भी भारतीय सैनिक अपने आदेश और मातृभूमि की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक डटे रहते हैं।
यही वो बलिदान है जिसने भारत की अस्मिता को बचाया। और यही कारण है कि आज भी जब कोई वीरता का नाम लेता है तो मेजर शैतान सिंह और रेज़ांग ला के जवान याद किए जाते हैं।
निष्कर्ष
रेज़ांग ला की लड़ाई भारत के सैन्य इतिहास की सबसे भीषण लेकिन सबसे गौरवशाली लड़ाइयों में गिनी जाती है। यह कहानी सिर्फ़ वीरता की नहीं, बल्कि अन्याय सहने और अपमान झेलने के बाद भी सच सामने लाने की गाथा है।
आज जब हम शांति की बात करते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी सीमाओं की रक्षा के लिए बर्फ़ीली चोटियों पर अब भी भारतीय सैनिक उसी जज़्बे और साहस के साथ डटे हुए हैं।
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FAQ :
प्रश्न 1: रेज़ांग ला की लड़ाई कब हुई थी?
उत्तर: रेज़ांग ला की लड़ाई 18 नवंबर 1962 को भारत-चीन युद्ध के दौरान हुई थी।
प्रश्न 2: मेजर शैतान सिंह कौन थे?
उत्तर: मेजर शैतान सिंह 13 कुमाऊँ रेजिमेंट के बहादुर कमांडर थे, जिन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
प्रश्न 3: रेज़ांग ला की लड़ाई में कितने सैनिक शहीद हुए थे?
उत्तर: 124 भारतीय जवानों में से 114 शहीद हुए, और केवल 5 युद्धबंदी बनाए गए।
प्रश्न 4: इस लड़ाई को खास क्यों माना जाता है?
उत्तर: क्योंकि बेहद कम संख्या और संसाधनों के बावजूद भारतीय सैनिकों ने आख़िरी सांस तक हज़ारों चीनी सैनिकों को रोके रखा।