
भारत-चीन रिश्तों में आई नई बहार?
सोचिए एक क्षण के लिए — बीजिंग की ठंडी हवा में भारत और चीन के दो शीर्ष प्रतिनिधि आमने-सामने बैठे हैं। बाहर की दुनिया को इस बात का बेसब्री से इंतज़ार है कि कमरे के अंदर क्या चल रहा है। क्या यह सिर्फ एक औपचारिक भेंट है, या कुछ ऐतिहासिक घटित होने वाला है?
और तभी, एक वाक्य निकलता है— “ड्रैगन और एलिफेंट का टैंगो!”
यह कोई कविता नहीं थी, बल्कि एक राजनयिक दृष्टिकोण था—जिसे चीन के उपराष्ट्रपति हान झेंग ने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात के दौरान व्यक्त किया।
बैठक की पृष्ठभूमि: दो पड़ोसी, दो विरोधाभास, एक संभावना
भारत और चीन — दो प्राचीन सभ्यताएं, दो परमाणु ताकतें, दो आर्थिक महाशक्तियां। परंतु पिछले कुछ वर्षों से इन दोनों देशों के बीच संबंधों पर LAC (वास्तविक नियंत्रण रेखा) के साए ने कड़वाहट भर दी थी। गलवान की घाटी आज भी गवाह है उन तनावपूर्ण लम्हों की, जब सैनिक आमने-सामने खड़े थे।
ऐसे समय में यह बीजिंग बैठक केवल एक कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक डिप्लोमैटिक थ्रिलर थी—जिसमें दांव पर था दक्षिण एशिया का भविष्य, वैश्विक शांति और दो महाशक्तियों की साख।
‘ड्रैगन और एलिफेंट का टैंगो’: सिर्फ एक रूपक नहीं
चीन के उपराष्ट्रपति हान झेंग ने कहा—
“भारत और चीन यदि साथ चलें, तो वैश्विक दक्षिण की आवाज बन सकते हैं।”
इस वाक्य ने पूरे राजनयिक परिदृश्य में एक नई जान फूंक दी।
यह सिर्फ भाषण नहीं था, बल्कि एक रणनीतिक संकेत था— कि अब समय आ गया है जब भारत और चीन साझेदारी के नए अध्याय की शुरुआत करें।
‘ड्रैगन’ यानी चीन और ‘एलिफेंट’ यानी भारत, यदि साथ टैंगो करें, तो:
• अर्थव्यवस्था की गति दुगुनी हो सकती है,
• जलवायु संकट से लड़ने में सहयोग किया जा सकता है,
• और ग्लोबल साउथ को विकसित देशों के मुकाबले में खड़ा किया जा सकता है।
बातचीत की प्रमुख बातें: क्या बदलेगा नया अध्याय?
1. पुरानी सहमतियों का क्रियान्वयन:
दोनों पक्षों ने माना कि उनके शीर्ष नेतृत्व की पूर्व सहमतियों को अब कागज़ से ज़मीन पर लाना होगा।
2. आर्थिक सहयोग को नई दिशा:
व्यापार, निवेश और टेक्नोलॉजी साझेदारी जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर चर्चा हुई।
3. सांस्कृतिक आदान-प्रदान:
छात्रवृत्तियों, फिल्म महोत्सवों और पर्यटन में साझा योजनाओं को बल मिलेगा।
4. सीमाई मुद्दों पर संवाद:
सबसे संवेदनशील मुद्दा — LAC। इस पर शांतिपूर्ण समाधान और नियमित संवाद की प्रतिबद्धता दोहराई गई।
विश्लेषण: क्या यह विश्वास बहाली की शुरुआत है?
भारत और चीन की यह पहल निश्चित ही “ट्रैक टू डिप्लोमेसी” से आगे बढ़कर “ट्रस्ट डिप्लोमेसी” की ओर एक प्रयास है। लेकिन यथार्थ भी उतना ही स्पष्ट है:
• सीमा विवादों को सुलझाने के लिए सिर्फ बातें नहीं, बल्कि भरोसेमंद व्यवहार चाहिए।
• चीनी विस्तारवाद को लेकर भारत की चिंता अब भी वैध है।
• सैन्य गतिशीलता पर नियंत्रण और पारदर्शिता की दरकार बनी हुई है।
यदि यह टैंगो सफल हुआ, तो सिर्फ भारत-चीन ही नहीं, पूरी दुनिया को इसका लाभ मिलेगा। पर यदि यह केवल राजनयिक नृत्य रह गया, तो यह एक और ‘खाली बयान’ बनकर रह जाएगा।
निष्कर्ष: हाथ मिलाने से पहले दिलों को मिलाना होगा
“ड्रैगन और एलिफेंट का टैंगो” एक खूबसूरत कल्पना है—लेकिन उसके लिए ज़रूरी है कि दोनों देश अपने अहंकार की तलवारें म्यान में रखें, और संवाद के पुल पर भरोसे की नींव डालें।
यह बैठक केवल एक शुरुआत है। अब देखना यह है कि क्या बीजिंग की यह गर्मजोशी लद्दाख की बर्फीली रातों में भी महसूस होगी?