
डोनाल्ड ट्रम्प की इज़राइल पर नाराज़गी केवल कूटनीतिक मतभेद नहीं, बल्कि एक संकेत है कि अमेरिका अब अनगिनत युद्धों से ऊब चुका है। जानिए इस विश्लेषण में पूरी कहानी।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने आखिरकार खुलकर कहा दिया — “मैं इज़राइल से खुश नहीं हूं।” लेकिन यह बयान तब आया, जब स्थिति काफी आगे बढ़ चुकी है। ट्रम्प की नाराज़गी केवल एक कूटनीतिक असहमति नहीं है, बल्कि यह दर्शाती है कि अमेरिका में अब एक बड़ा वर्ग है जो लगातार युद्धों से थक चुका है।
ट्रम्प की युद्ध नीति: वादा बनाम हकीकत
ट्रम्प का राजनीतिक सफर एक वाक्य से शुरू हुआ था — “हर अमेरिकी राष्ट्रपति एक फालतू युद्ध लड़ता है, मैं नहीं लड़ूँगा।” 2016 में राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रम्प ने वास्तव में किसी नए युद्ध की शुरुआत नहीं की। उन्होंने अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की, ईरान के साथ समझौते की कोशिश की और उत्तर कोरिया के साथ सीधे संवाद का रास्ता खोला।
लेकिन 2024 के चुनाव में फिर से सत्ता में आने के बाद ट्रम्प को एक अलग सच्चाई का सामना करना पड़ा। रूस-यूक्रेन युद्ध को खत्म करने के उनके प्रयास विफल हो गए। पेंटागन और रक्षा लॉबी ने फिर साबित किया कि अमेरिका में राष्ट्रपति से ज़्यादा ताकतवर “डीप स्टेट” ही होती है।
अमेरिका की एंटी-रूस नीति: 300 साल पुरानी रणनीति?
रूस के खिलाफ पश्चिमी रणनीति कोई नई बात नहीं है। 18वीं सदी में कैथरीन द ग्रेट ने क्रीमिया पर कब्जा कर रूस को यूरोप के तटीय क्षेत्रों तक पहुँचा दिया था। ब्रिटेन को यह विस्तार रास नहीं आया, और फिर शुरू हुआ “The Great Game”, जिसमें रूस और ब्रिटेन भारत और मध्य एशिया पर प्रभुत्व की होड़ में उतर पड़े।
इस संघर्ष ने ईरान, अफगानिस्तान, सीरिया और इराक जैसे देशों को बार-बार झुलसाया। कभी अमेरिका का दखल, कभी रूस की घुसपैठ — ये देश कभी किसी की कठपुतली बने, कभी किसी के मोहरे।
इज़राइल और पाकिस्तान: ब्रिटिश साम्राज्य की रणनीतिक पैदाइश
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन ने दो राष्ट्रों को जन्म दिया — इज़राइल और पाकिस्तान। इज़राइल को मध्य एशिया में रूस को घेरने और पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में भारत को संतुलित करने के लिए खड़ा किया गया। यही कारण है कि चाहे इज़राइल कितनी भी आक्रामक नीति अपनाए, उसे अमेरिका (और पश्चिम) का समर्थन बना रहता है।
भारत-रूस संबंध: दोस्ती या रणनीतिक मजबूरी?
भारत और रूस के रिश्ते को अक्सर भावनात्मक मित्रता के तौर पर देखा जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि भारत को ब्रिटिश-अमेरिकी गुट के सामने खुद को संतुलित करने के लिए रूस का साथ लेना पड़ा। जब तक भारत एक विकासशील और सामरिक रूप से कमजोर राष्ट्र था, तब तक उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं थे।
ट्रम्प, इज़राइल और ईरान: एक त्रिकोणीय तनाव
ट्रम्प ने राष्ट्रपति रहते हुए ईरान के साथ परमाणु समझौते से अमेरिका को बाहर कर दिया था, लेकिन इसके बाद उन्होंने बार-बार कूटनीतिक रास्ता अपनाने की बात कही। ट्रम्प युद्ध से बचना चाहते हैं, लेकिन जब इज़राइल ने गाजा और ईरान समर्थक गुटों पर सैन्य अभियान शुरू किया, तो ट्रम्प पर दबाव बढ़ा।
इज़राइल को ट्रम्प ने “अमेरिका का बेटा” कहा था, लेकिन अब वही बेटा उन्हें कड़े फैसले लेने पर मजबूर कर रहा है।
ट्रम्प की नाराज़गी: क्या असर होगा?
ट्रम्प की हालिया टिप्पणी — कि वह इज़राइल से खुश नहीं हैं — राजनीतिक हलकों में हलचल मचा रही है। पर सवाल यह है कि क्या इज़राइल इस नाराज़गी को गंभीरता से लेगा?
बेंजामिन नेतन्याहू की रणनीति स्पष्ट है: ईरान का प्रभाव खत्म किए बिना इज़राइल नहीं रुकेगा। नेतन्याहू के भाषण, नीतियाँ और सुरक्षा रणनीतियाँ दशकों से यही कहती आई हैं।
अब आगे क्या?
ट्रम्प की नाराज़गी अपने आप में एक संकेत है — अमेरिका में एक बड़ा तबका है जो युद्ध नहीं, शांति और घरेलू विकास चाहता है। लेकिन अमेरिका की विदेश नीति केवल राष्ट्रपति तय नहीं करता। असली सत्ता है “डीप स्टेट” — जिसे बदला नहीं जा सकता, केवल संतुलित किया जा सकता है।
निष्कर्ष
डोनाल्ड ट्रम्प की इज़राइल को लेकर नाराज़गी यह दर्शाती है कि अमेरिका अब खुद को “युद्धों का ठेकेदार” मानने से पीछे हटना चाहता है। लेकिन क्या अमेरिका के रक्षा तंत्र, खुफिया एजेंसियाँ और पुराने सामरिक गठबंधन इसे स्वीकार करेंगे? या फिर यह फिर से वही पुराना चक्र होगा — युद्ध, सत्ता और संघर्ष?
यह लड़ाई अब नेतन्याहू और ट्रम्प के बीच नहीं, बल्कि ट्रम्प और अमेरिकी डीप स्टेट के बीच है।
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